भर आईं आँखें किसी भूली याद से शाम के मंज़र में
भर आईं आँखें किसी भूली याद से शाम के मंज़र में
दो बूँदें मेरी होतीं तेरे बे-अंत समुंदर में
जो सैराब करें तिरी सब्ज़ा-गाहें उम्र के पानी से
थोड़ी सी हरियाली होती उन के ज़र्द मुक़द्दर में
जिन आँखों से रंगों वाली बारिश का इक वा'दा था
वो आँखें तो मिट्टी हो गईं सुब्ह-ओ-शाम के चक्कर में
आज भी धूप के सज्जादे पे नमाज़-ए-मशक़्क़त मैं ने पढ़ी
आज भी मालिक दोज़ख़ रख दी तू ने मेरे बिस्तर में
कभी कभी इस खोज में दिल के दरवाज़े तक जाता हूँ
किस ने मुझ से छुप कर मेरी उम्र गुज़ारी इस घर में
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