अजीब ही था मिरे दौर-ए-गुमरही का रफ़ीक़
बिछड़ गया तो कभी लौट कर नहीं आया
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दिल कभी ख़्वाब के पीछे कभी दुनिया की तरफ़
मंसब न कुलाह चाहता हूँ
हमें तो अपने समुंदर की रेत काफ़ी है
इंतिबाह
ये क़र्ज़-ए-कज-कुलही कब तलक अदा होगा
मुल्क-ए-सुख़न में दर्द की दौलत को क्या हुआ
दयार-ए-नूर में तीरा-शबों का साथी हो
हम अपने रफ़्तगाँ को याद रखना चाहते हैं
ग़म-ए-जहाँ को शर्मसार करने वाले क्या हुए
ख़्वाब की तरह बिखर जाने को जी चाहता है
एक रुख़
अज़ाब-ए-वहशत-ए-जाँ का सिला न माँगे कोई