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शहर-आशोब - इफ़्तिख़ार आरिफ़ कविता - Darsaal

शहर-आशोब

ऐ शहर-ए-रसन-बस्ता

क्या ये तिरी मंज़िल है

क्या ये तिरा हासिल है

ये कौन सा मंज़र है

कुछ भी तो नहीं खुलता

क्या तेरा मुक़द्दर है

तक़दीर-ए-फ़सील-ए-शहर कतबा है कि गुल-दस्ता

ऐ शहर-ए-रसन-बस्ता

अब कोई भी ख़्वाबों पर ईमान नहीं रखता

किस राह पे जाना है किस राह नहीं जाना पहचान नहीं रखता

शायर हो कि सूरत-गर बाग़ों की चराग़ों की बस्ती के सजाने का सामान नहीं रखता

जिस सम्त नज़र कीजे आँखों में दर आते हैं और ख़ून रुलाते हैं

यादों से भरे दामन लाशों से भरा रस्ता

ऐ शहर-ए-रसन-बस्ता

मुद्दत हुई लोगों को चुप मार गई जैसे

ठुकराई हुई ख़िल्क़त जीने की कशाकश में जी हार गई जैसे

हर साँस ख़जिल ठहरी बेकार गई जैसे

अब ग़म की हिकायत हो या लुत्फ़ की बातें हों कोई भी नहीं रोता कोई भी नहीं हँसता

ऐ शहर-ए-रसन-बस्ता

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