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शहर इल्म के दरवाज़े पर - इफ़्तिख़ार आरिफ़ कविता - Darsaal

शहर इल्म के दरवाज़े पर

कभी कभी दिल ये सोचता है

न जाने हम बे-यक़ीन लोगों को नाम-ए-हैदर से रब्त क्यूँ है

हकीम जाने वो कैसी हिकमत से आश्ना था

शजीअ जाने कि बदर ओ ख़ैबर की फ़त्ह-मंदी का राज़ क्या था

अलीम जाने वो इल्म के कौन से सफ़ीनों का ना-ख़ुदा था

मुझे तो बस सिर्फ़ ये ख़बर है

वो मेरे मौला की ख़ुशबुओं में रचा-बसा था

वो उन के दामान-ए-आतिफ़त में पला बढ़ा था

और उस के दिन रात मेरे आक़ा के चश्म ओ अबरू ओ जुम्बिश-ए-लब के मुंतज़िर थे

वो रात को दुश्मनों के नर्ग़े में सो रहा था तो उन की ख़ातिर

जिदाल में सर से पाँव तक सुर्ख़ हो रहा था तो उन की ख़ातिर

सो उस को महबूब जानता हूँ

सो उस को मक़्सूद मानता हूँ

सआदतें उस के नाम से हैं

मोहब्बतें उस के नाम से हैं

मोहब्बतों के सभी घरानों की निस्बतें उस के नाम से हैं

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