सहरा में एक शाम
दश्त-ए-बे-नख़ील में
बाद-ए-बे-लिहाज़ ने
ऐसी ख़ाक अड़ाई है
कुछ भी सूझता नहीं
हौसलों का साएबान
रास्तों के दरमियान
किस तरह उजड़ गया
कौन कब बिछड़ गया
कोई पूछता नहीं
फ़स्ल-ए-ए'तिबार में
आतिश-ए-ग़ुबार से
ख़ेमा-ए-दुआ जला
दामन-ए-वफ़ा जला
किस बुरी तरह जला
फिर भी ज़िंदगी का साथ है कि छूटता नहीं
कुछ भी सूझता नहीं
कोई पूछता नहीं
और ज़िंदगी का साथ है कि छूटता नहीं
(933) Peoples Rate This