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क़िस्सा एक बसंत का - इफ़्तिख़ार आरिफ़ कविता - Darsaal

क़िस्सा एक बसंत का

पतंगें लूटने वालों को क्या मालूम किस के हाथ का माँझा खरा था और किस की

डोर हल्की थी

उन्हें इस से ग़रज़ क्या पेँच पड़ते वक़्त किन हाथों में लर्ज़ा आ गया था

और किस की खेंच अच्छी थी?

हवा किस की तरफ़ थी, कौन सी पाली की बैरी थी?

पतंगें लूटने वालों को क्या मालूम?

उन्हें तो बस बसंत आते ही अपनी अपनी डाँगेँ ले के मैदानों में आना है

गली-कूचों में काँटी मारना है पतंगें लूटना है लूट के जौहर दिखाना है

पतंगें लूटने वालों को क्या मालूम किस के हाथ का माँझा खरा था

और किस की डोर हल्की थी?

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