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पस च-बायद-कर्द - इफ़्तिख़ार आरिफ़ कविता - Darsaal

पस च-बायद-कर्द

ख़्वाब-ए-ख़स-ख़ाना-ओ-बरफ़ाब के पीछे पीछे

गर्मी-ए-शहर-ए-मुक़द्दर के सताए हुए लोग

कैसी यख़-बस्ता ज़मीनों की तरफ़ आ निकले

मौज-ए-ख़ूँ बर्फ़ हुई जाती है साँसें भी हैं बर्फ़

वहशतें जिन का मुक़द्दर थीं वो आँखें भी हैं बर्फ़

याद-ए-यारान-ए-दिल-आवेज़ का मंज़र भी है बर्फ़

एक इक नाम हर आवाज़ हर इक चेहरा बर्फ़

मुंजमिद ख़्वाब की टिकसाल का हर सिक्का बर्फ़

और अब सोचते हैं शाम-ओ-सहर सोचते हैं

ख़्वाब-ए-ख़स-ख़ाना-ओ-बरफ़ाब से वो आग भली

जिन के शोलों में भी क़िर्तास ओ क़लम ज़िंदा हैं

जिस में हर अहद के हर नस्ल के ग़म ज़िंदा हैं

ख़ाक हो कर भी ये लगता था कि हम ज़िंदा हैं

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