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कुछ देर पहले नींद से - इफ़्तिख़ार आरिफ़ कविता - Darsaal

कुछ देर पहले नींद से

मैं जिन को छोड़ आया था शनासाई की बस्ती के वो सारे रास्ते आवाज़ देते हैं

नहीं मालूम अब किस वास्ते आवाज़ देते हैं

लहू में ख़ाक उड़ती है

बदन ख़्वाहिश-ब-ख़्वाहिश ढह रहा है

और नफ़स की आमद-ओ-शुद दिल की ना-हमवारियों पर बैन करती है

वो सारे ख़्वाब एक इक कर के रुख़्सत हो चुके हैं जिन से आँखें जागती थीं

और उम्मीदों के रौज़न शहर-ए-आइंदा में खिलते थे

बहुत आहिस्ता आहिस्ता

अंधेरा दिल में, आँखों में, लहू में, बहते बहते जम गया है

वक़्त जैसे थम गया है

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