हवाएँ अन-पढ़ हैं
अब के बार फिर
मौज-ए-बहार ने
फ़र्श-ए-सब्ज़ पर
साअत-ए-महर में
हार-सिंघार से
हम दोनों के नाम लिखे हैं
और दुआ माँगी है कि ''ऐ रातों को जुगनू देने वाले!
सूखी हुई मिट्टी को ख़ुशबू देने वाले!
शुक्र-गुज़ार आँखों को आँसू देने वाले!
इन दोनों का साथ न छूटे''
और सुना ये है कि हवाएँ
अब के बार भी तेज़ बहुत हैं
शहर-ए-विसाल से आने वाले मौसम हिज्र-अंगेज़ बहुत हैं
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