एक शायर एक नज़्म
अपने शहसवारों को
क़त्ल करने वालों से
ख़ूँ-बहा तलब करना
वारिसों पे वाजिब था
क़ातिलों पे वाजिब था
ख़ूँ-बहा अदा करना
वाजिबात की तकमील
मुंसिफ़ों पे वाजिब थी
मुंसिफ़ों की निगरानी
क़ुदसियों पे वाजिब थी
वक़्त की अदालत में
एक सम्त मसनद थी
एक सम्त ख़ंजर था
ताज-ए-ज़र-निगार इक सम्त
एक सम्त लश्कर था
इक तरफ़ मुक़द्दर था
ताइफ़े पुकार उठ्ठे
ताज-ओ-तख़्त ज़िंदाबाद
साज़-ओ-रख़्त ज़िंदाबाद
साज़-ओ-रख़्त ज़िंदाबाद
ख़ल्क़ हम से कहती है
सारा माजरा लिक्खें
किस ने किस तरह पाया
अपना ख़ूँ-बहा लिक्खें
चश्म-ए-नम से शर्मिंदा
हम क़लम से शर्मिंदा
सोचते हैं
क्या लिक्खें
(1023) Peoples Rate This