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एक रुख़ - इफ़्तिख़ार आरिफ़ कविता - Darsaal

एक रुख़

वो फ़ुरात के साहिल पर हों या किसी और किनारे पर

सारे लश्कर एक तरह के होते हैं

सारे ख़ंजर एक तरह के होते हैं

घोड़ों की टापों में रौंदी हुई रौशनी

दरिया से मक़्तल तक फैली हुई रौशनी

सारे मंज़र एक तरह के होते हैं

ऐसे हर मंज़र के बाद इक सन्नाटा छा जाता है

ये सन्नाटा तब्ल-ओ-अलम की दहशत को खा जाता है

सन्नाटा फ़रियाद की लय है एहतिजाज का लहजा है

ये कोई आज की बात नहीं है बहुत पुराना क़िस्सा है

हर क़िस्से में सब्र के तेवर एक तरह के होते हैं

वो फ़ुरात के साहिल पर हों या किसी और किनारे पर

सारे लश्कर एक तरह के होते हैं

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