बन-बास
रात दिन ख़्वाब बुनती हुई ज़िंदगी
दिल में नक़्द-ए-इज़ाफ़ी की लौ
आँख बार-ए-अमानत से चूर
मौज-ए-ख़ूँ बे-नियाज़-ए-मआल
दश्त-ए-बे-रंग से दर्द के फूल चुनती हुई ज़िंदगी
ख़ौफ़-ए-वामांदगी से ख़जिल
आरज़ूओं के आशोब से मुज़्महिल
मुँह के बल ख़ाक पर आ पड़ी
हर तरफ़ इक भयानक सुकूत
कोई नौहा न आँसू न फूल
हासिल-ए-जिस्म-ओ-जाँ बे-निशाँ रहगुज़ारों की धूल
अजनबी शहर में
ख़ाक-बर-सर हुई ज़िंदगी
कैसी बे-घर हुई ज़िंदगी
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