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आख़िरी आदमी का रजज़ - इफ़्तिख़ार आरिफ़ कविता - Darsaal

आख़िरी आदमी का रजज़

मुसाहिबीन-ए-शाह मुतमइन हुए कि सरफ़राज़ सर-बुरीदा बाज़ुओं समेत शहर की फ़सील पर लटक रहे हैं

और हर तरफ़ सुकून है

सुकून ही सुकून है

फ़ुग़ान-ए-ख़ल्क़ अहल-ए-ताइफ़ा की नज़्र हो गई

मता-ए-सब्र वहशत-ए-दुआ की नज़्र हो गई

उमीद-ए-अज्र बे-यक़ीनी-ए-जज़ा की नज़्र हो गई

न ए'तिबार-ए-हर्फ़ है न आबरू-ए-ख़ून है

सुकून ही सुकून है

मुसाहिबीन-ए-शाह मुतमइन हुए कि सरफ़राज़ सर-बुरीदा बाज़ुओं

समेत शहर की फ़सील पर लटक रहे हैं और हर तरफ़ सुकून है

सुकून ही सुकून है

ख़लीज-ए-इक़्तिदार सरकशों से पाट दी गई

जो हाथ आई दौलत-ए-ग़नीम बाँट दी गई

तनाब-ए-ख़ेमा-ए-लिसान-ओ-लफ्ज़ काट दी गई

फ़ज़ा वो है कि आरज़ू-ए-ख़ैर तक जुनून है

सुकून ही सुकून है

मुसाहिबीन-ए-शाह मुतमइन हुए कि सरफ़राज़ सर-बुरीदा बाज़ुओं समेत शहर की फ़सील पर लटक रहे हैं

और हर तरफ़ सुकून है

सुकून ही सुकून है

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