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सर-ए-बाम-ए-हिज्र दिया बुझा तो ख़बर हुई - इफ़्तिख़ार आरिफ़ कविता - Darsaal

सर-ए-बाम-ए-हिज्र दिया बुझा तो ख़बर हुई

सर-ए-बाम-ए-हिज्र दिया बुझा तो ख़बर हुई

सर-ए-शाम कोई जुदा हुआ तो ख़बर हुई

मिरा ख़ुश-ख़िराम बला का तेज़-ख़िराम था

मिरी ज़िंदगी से चला गया तो ख़बर हुई

मिरे सारे हर्फ़ तमाम हर्फ़ अज़ाब थे

मिरे कम-सुख़न ने सुख़न किया तो ख़बर हुई

कोई बात बन के बिगड़ गई तो पता चला

मिरे बेवफ़ा ने करम किया तो ख़बर हुई

मिरे हम-सफ़र के सफ़र की सम्त ही और थी

कहीं रास्ता कोई गुम हुआ तो ख़बर हुई

मिरे क़िस्सा-गो ने कहाँ कहाँ से बढ़ाई बात

मुझे दास्ताँ का सिरा मिला तो ख़बर हुई

न लहू का मौसम-ए-रंग-रेज़ न दिल न मैं

कोई ख़्वाब था कि बिखर गया तो ख़बर हुई

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