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मेरा मालिक जब तौफ़ीक़ अर्ज़ानी करता है - इफ़्तिख़ार आरिफ़ कविता - Darsaal

मेरा मालिक जब तौफ़ीक़ अर्ज़ानी करता है

मेरा मालिक जब तौफ़ीक़ अर्ज़ानी करता है

गहरे ज़र्द ज़मीन की रंगत धानी करता है

बुझते हुए दिए की लौ और भीगी आँख के बीच

कोई तो है जो ख़्वाबों की निगरानी करता है

मालिक से और मिट्टी से और माँ से बाग़ी शख़्स

दर्द के हर मीसाक़ से रु-गर्दानी करता है

यादों से और ख़्वाबों से और उम्मीदों से रब्त

हो जाए तो जीने में आसानी करता है

क्या जाने कब किस साअत में तब्अ' रवाँ हो जाए

ये दरिया बे-मौसम भी तुग़्यानी करता है

दिल पागल है रोज़ नई नादानी करता है

आग में आग मिलाता है फिर पानी करता है

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