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ख़ौफ़ के सैल-ए-मुसलसल से निकाले मुझे कोई - इफ़्तिख़ार आरिफ़ कविता - Darsaal

ख़ौफ़ के सैल-ए-मुसलसल से निकाले मुझे कोई

ख़ौफ़ के सैल-ए-मुसलसल से निकाले मुझे कोई

मैं पयम्बर तो नहीं हूँ कि बचा ले मुझे कोई

अपनी दुनिया के मह-ओ-मेहर समेटे सर-ए-शाम

कर गया जादा-ए-फ़र्दा के हवाले मुझे कोई

इतनी देर और तवक़्क़ुफ़ कि ये आँखें बुझ जाएँ

किसी बे-नूर ख़राबे में उजाले मुझे कोई

किस को फ़ुर्सत है कि ता'मीर करे अज़-सर-ए-नौ

ख़ाना-ए-ख़्वाब के मलबे से निकाले मुझे कोई

अब कहीं जा के समेटी है उमीदों की बिसात

वर्ना इक उम्र की ज़िद थी कि सँभाले मुझे कोई

क्या अजब ख़ेमा-ए-जाँ तेरी तनाबें कट जाएँ

इस से पहले कि हवाओं में उछाले मुझे कोई

कैसी ख़्वाहिश थी कि सोचो तो हँसी आती है

जैसे मैं चाहूँ उसी तरह बना ले मुझे कोई

तेरी मर्ज़ी मिरी तक़दीर कि तन्हा रह जाऊँ

मगर इक आस तो दे पालने वाले मुझे कोई

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