ख़ल्क़ ने इक मंज़र नहीं देखा बहुत दिनों से
ख़ल्क़ ने इक मंज़र नहीं देखा बहुत दिनों से
नोक-ए-सिनाँ पे सर नहीं देखा बहुत दिनों से
पत्थर पे सर रख कर सोने वाले देखे
हाथों में पत्थर नहीं देखा बहुत दिनों से
क़ातिल जिस की ज़द से ख़ुद महफ़ूज़ रह सके
ऐसा कोई ख़ंजर नहीं देखा बहुत दिनों से
अपने ही ख़ेमों पर जो शब-ख़ून न मारे
ऐसा कोई लश्कर नहीं देखा बहुत दिनों से
शाख़-ए-बुरीदा खुली फ़ज़ा से पूछ रही है
कोई शिकस्ता-पर नहीं देखा बहुत दिनों से
ज़िंदाँ अहल-ए-जुनूँ को शायद रास आ गया
दीवारों में दर नहीं देखा बहुत दिनों से
ख़ाक उड़ाने वाले लोगों की बस्ती में
कोई सूरत-गर नहीं देखा बहुत दिनों से
सच्चे साईं हमारे 'हज़रत-मेहर-अली-शाह'
बाबा हम ने घर नहीं देखा बहुत दिनों से
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