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हम अपने रफ़्तगाँ को याद रखना चाहते हैं - इफ़्तिख़ार आरिफ़ कविता - Darsaal

हम अपने रफ़्तगाँ को याद रखना चाहते हैं

हम अपने रफ़्तगाँ को याद रखना चाहते हैं

दिलों को दर्द से आबाद रखना चाहते हैं

मुबादा मुंदमिल ज़ख़्मों की सूरत भूल ही जाएँ

अभी कुछ दिन ये घर बरबाद रखना चाहते हैं

बहुत रौनक़ थी उन के दम क़दम से शहर-ए-जाँ में

वही रौनक़ हम उन के बा'द रखना चाहते हैं

बहुत मुश्किल ज़मानों में भी हम अहल-ए-मोहब्बत

वफ़ा पर इश्क़ की बुनियाद रखना चाहते हैं

सरों में एक ही सौदा कि लौ देने लगे ख़ाक

उमीदें हस्ब-ए-इस्तेदाद रखना चाहते हैं

कहीं ऐसा न हो हर्फ़-ए-दुआ मफ़्हूम खो दे

दुआ को सूरत-ए-फ़रियाद रखना चाहते हैं

क़लम आलूदा-ए-नान-ओ-नमक रहता है फिर भी

जहाँ तक हो सके आज़ाद रखना चाहते हैं

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