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ग़ैरों से दाद-ए-जौर-ओ-जफ़ा ली गई तो क्या - इफ़्तिख़ार आरिफ़ कविता - Darsaal

ग़ैरों से दाद-ए-जौर-ओ-जफ़ा ली गई तो क्या

ग़ैरों से दाद-ए-जौर-ओ-जफ़ा ली गई तो क्या

घर को जला के ख़ाक उड़ा दी गई तो क्या

गारत-गरी-ए-शहर में शामिल है कौन कौन

ये बात अहल-ए-शहर पे खुल भी गई तो क्या

इक ख़्वाब ही तो था जो फ़रामोश हो गया

इक याद ही तो थी जो भुला दी गई तो क्या

मीसाक़-ए-ऐतबार में थी इक वफ़ा की शर्त

इक शर्त ही तो थी जो उठा दी गई तो क्या

क़ानून-ए-बाग़-बानी-ए-सहरा की सरनविश्त

लिक्खी गई तो क्या जो न लिक्खी गई तो क्या

इस क़हत-ओ-इंहदाम-ए-रिवायत के अहद में

तालीफ़ नुस्ख़ा-हा-ए-वफ़ा की गई तो क्या

जब 'मीर' ओ 'मीरज़ा' के सुख़न राएगाँ गए

इक बे-हुनर की बात न समझी गई तो क्या

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