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फ़ज़ा में वहशत-ए-संग-ओ-सिनाँ के होते हुए - इफ़्तिख़ार आरिफ़ कविता - Darsaal

फ़ज़ा में वहशत-ए-संग-ओ-सिनाँ के होते हुए

फ़ज़ा में वहशत-ए-संग-ओ-सिनाँ के होते हुए

क़लम है रक़्स में आशोब-ए-जाँ के होते हुए

हमीं में रहते हैं वो लोग भी कि जिन के सबब

ज़मीं बुलंद हुई आसमाँ के होते हुए

ब-ज़िद है दिल कि नए रास्ते निकाले जाएँ

निशान-ए-रह-गुज़र-ए-रफ़्तगाँ के होते हुए

जहान-ए-ख़ैर में इक हुजरा-ए-क़नाअत-ओ-सब्र

ख़ुदा करे कि रहे जिस्म ओ जाँ के होते हुए

क़दम क़दम पे दिल-ए-ख़ुश-गुमाँ ने खाई मात

रविश रविश निगह-ए-मेहरबाँ के होते हुए

मैं एक सिलसिला-ए-आतिशीं में बैअत था

सो ख़ाक हो गया नाम-ओ-निशाँ के होते हुए

मैं चुप रहा कि वज़ाहत से बात बढ़ जाती

हज़ार शेवा-ए-हुस्न-ए-बयाँ के होते हुए

उलझ रही थी हवाओं से एक कश्ती-ए-हर्फ़

पड़ी है रेत पे आब-ए-रवाँ के होते हुए

बस एक ख़्वाब की सूरत कहीं है घर मेरा

मकाँ के होते हुए ला-मकाँ के होते हुए

दुआ को हात उठाते हुए लरज़ता हूँ

कभी दुआ नहीं माँगी थी माँ के होते हुए

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