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बस्ती भी समुंदर भी बयाबाँ भी मिरा है - इफ़्तिख़ार आरिफ़ कविता - Darsaal

बस्ती भी समुंदर भी बयाबाँ भी मिरा है

बस्ती भी समुंदर भी बयाबाँ भी मिरा है

आँखें भी मिरी ख़्वाब-ए-परेशाँ भी मिरा है

जो डूबती जाती है वो कश्ती भी है मेरी

जो टूटता जाता है वो पैमाँ भी मिरा है

जो हाथ उठे थे वो सभी हाथ थे मेरे

जो चाक हुआ है वो गिरेबाँ भी मिरा है

जिस की कोई आवाज़ न पहचान न मंज़िल

वो क़ाफ़िला-ए-बे-सर-ओ-सामाँ भी मिरा है

वीराना-ए-मक़तल पे हिजाब आया तो इस बार

ख़ुद चीख़ पड़ा मैं कि ये उनवाँ भी मिरा है

वारफ़्तगी-ए-सुब्ह-ए-बशारत को ख़बर क्या

अंदेशा-ए-सद-शाम-ए-ग़रीबाँ भी मिरा है

मैं वारिस-ए-गुल हूँ कि नहीं हूँ मगर ऐ जान

ख़मयाज़ा-ए-तौहीन-ए-बहाराँ भी मिरा है

मिट्टी की गवाही से बड़ी दिल की गवाही

यूँ हो तो ये ज़ंजीर ये ज़िंदाँ भी मिरा है

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