क़ुर्बान जाऊँ हुस्न-ए-क़मर इंतिसाब के
क़ुर्बान जाऊँ हुस्न-ए-क़मर इंतिसाब के
आरिज़ हैं या हैं फूल शगुफ़्ता गुलाब के
अब दिन कहाँ रहे वो हमारे सबात के
इक धूप थी जो साथ गई आफ़्ताब के
हर इक अदा में उस की है क़ौस-ए-क़ुज़ह का रंग
है गुफ़्तुगू में कितने हवाले किताब के
हालात ने झिंझोड़ के होशियार तो किया
जागे हुए हैं फिर भी तो आसार ख़्वाब के
फैला चुके हैं फ़िरक़ा-परस्ती का ज़हर वो
आए हैं सामने जो अदद इंतिख़ाब के
गोली से हल न होंगे मोहब्बत से होंगे हल
क़ज़िए हों काश्मीर के या पंज-आब के
निकली सरों की फ़स्ल है गोभी के खेत से
खिलते जहाँ ये फूल थे कल तक गुलाब के
पीर-ए-मुग़ाँ से 'फ़ख़्र' यही इक सवाल है
औंधे हैं आज जाम-ओ-सुबू क्यूँ शराब के
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