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तसव्वुर - इफ़्तिख़ार आज़मी कविता - Darsaal

तसव्वुर

इस शहर में शाम होते ही गलियों के नुक्कड़ पर

सड़कों के किनारे ज़िंदा-दिल लोग

आँखों के कटोरे लिए खड़े हो जाते हैं

और शाख़-ए-गुल की तरह लचकती महकती लड़कियाँ

हुस्न की ख़ैरात बाँटती फिरती हैं

ख़ूब-सूरत तनौ-मंद बच्चे

फूलों की तरह मुस्कुराते

एक हाथ में खिलौने

एक हाथ में माँ की उँगली पकड़े हँसते-खेलते गुज़रते हैं

मय-कदों में रिंद जाम पर जाम लुंढाते हैं

घरों में पकने वाले खानों की ख़ुश्बू

इश्तिहा को तेज़ करती है

कितना ख़ूब-सूरत कितना जान-दार है वो शहर जिसे मेरी बंद आँखों के अलावा

किसी और ने नहीं देखा

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