कौन पहचानेगा 'ज़र्रीं' मुझ को इतनी भीड़ में
मेरे चेहरे से वो अपनी हर निशानी ले गया
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घबरा गए हैं वक़्त की तन्हाइयों से हम
वो मिल गया तो बिछड़ना पड़ेगा फिर 'ज़र्रीं'
देख कर इंसान की बेचारगी
ज़ेहन ओ दिल के फ़ासले थे हम जिन्हें सहते रहे
वो मुझ को भूल चुका अब यक़ीन है वर्ना
ख़्वाब आँखों से ज़बाँ से हर कहानी ले गया
बे-सम्त रास्तों पे सदा ले गई मुझे
अगर वो चाँद की बस्ती का रहने वाला था
मंज़िलें आईं तो रस्ते खो गए
अजीब कर्ब-ए-मुसलसल दिल-ओ-नज़र में रहा