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रहमतों में तिरी आग़ोश की पाले गए हम - इफ़्फ़त अब्बास कविता - Darsaal

रहमतों में तिरी आग़ोश की पाले गए हम

रहमतों में तिरी आग़ोश की पाले गए हम

ऐसे मरदूद हुए फिर कि निकाले गए हम

आसमानों को सँभाले रही क़ुदरत तेरी

इतने सरकश थे कि तुझ से न सँभाले गए हम

इश्क़ की बू थी तजस्सुस का नशा शौक़ का रंग

साग़र-ए-गुल में तिरे वास्ते ढाले गए हम

तजरबात अपने मुक़द्दर में लिए मरहला-वार

तेरे बाज़ार-ए-तमाशा में उछाले गए हम

जिंस-ए-एहसास की दूकान पे सन्नाटा था

कोई गाहक न था इस का तो उठा ले गए हम

रो'ब तारी था ज़बाँ पर तिरा मख़्लूक़ थी चुप

हम तो आशिक़ थे ग़म-ए-हिज्र सुना ले गए हम

लूट ले चैन कोई ये न हुआ था अब तक

मुतमइन रह गया वो और चुरा ले गए हम

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