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रह-ए-जुस्तुजू में भटक गए तो किसी से कोई गिला नहीं - इफ़्फ़त अब्बास कविता - Darsaal

रह-ए-जुस्तुजू में भटक गए तो किसी से कोई गिला नहीं

रह-ए-जुस्तुजू में भटक गए तो किसी से कोई गिला नहीं

कि हम उस के हो के न जी सके वो हमारा बन के मिला नहीं

मिरे फ़िक्र-ओ-फ़न पे मुहीत है जो तसव्वुर एक ख़ुदा-नुमा

है तलाश उस की नहीं पता वो ख़ुदा भी है कि ख़ुदा नहीं

जो मिली नहीं मुझे आगही है मिरी निगाह से अजनबी

हो रग-ए-गुलू से क़रीब भी तो यही कहेंगे मिला नहीं

जो बसीर हो वो नज़र भी दे मुझे आगही का हुनर भी दे

मगर अब तू मेरी ख़बर भी दे कि मुझे ख़ुद अपना पता नहीं

हैं 'शहाब' मेरे हवास गुम कि हर एक शब है शब-ए-दहुम

जो बुझा तो बुझ के ही रह गया है चराग़ फिर से जला नहीं

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