ख़ूँ में तर सब्र की चादर कहाँ ले जाओगे
ख़ूँ में तर सब्र की चादर कहाँ ले जाओगे
ज़िंदगानी को बरहना-सर कहाँ ले जाओगे
आ गए अहकाम-ए-नव्वाब बोलना ममनूअ' है
तुम सुख़नवर लब-ए-गुस्तर कहाँ ले जाओगे
टूट जाएँगे ज़वाबित चीख़ उट्ठेगा ज़मीर
दूर नज़रों से हर इक मंज़र कहाँ ले जाओगे
तर्क-ए-औला की सज़ा ये पत्थरों का शहर है
अब भला ये काँच का पैकर कहाँ ले जाओगे
शौक़ के पुर-पेच रस्ते और अनासिर संग-ए-मील
गर उठा भी लो तो ये पत्थर कहाँ ले जाओगे
आगही का रिज़्क़ कब मलता है और किस सम्त से
कासा-ए-ज़ौक़-ए-नज़र दर दर कहाँ ले जाओगे
हिज्र की शब का है ये पिछ्ला पहर उठो 'शहाब'
रो चुके शब भर ये चश्म-तर कहाँ ले जाओगे
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