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ख़ूँ में तर सब्र की चादर कहाँ ले जाओगे - इफ़्फ़त अब्बास कविता - Darsaal

ख़ूँ में तर सब्र की चादर कहाँ ले जाओगे

ख़ूँ में तर सब्र की चादर कहाँ ले जाओगे

ज़िंदगानी को बरहना-सर कहाँ ले जाओगे

आ गए अहकाम-ए-नव्वाब बोलना ममनूअ' है

तुम सुख़नवर लब-ए-गुस्तर कहाँ ले जाओगे

टूट जाएँगे ज़वाबित चीख़ उट्ठेगा ज़मीर

दूर नज़रों से हर इक मंज़र कहाँ ले जाओगे

तर्क-ए-औला की सज़ा ये पत्थरों का शहर है

अब भला ये काँच का पैकर कहाँ ले जाओगे

शौक़ के पुर-पेच रस्ते और अनासिर संग-ए-मील

गर उठा भी लो तो ये पत्थर कहाँ ले जाओगे

आगही का रिज़्क़ कब मलता है और किस सम्त से

कासा-ए-ज़ौक़-ए-नज़र दर दर कहाँ ले जाओगे

हिज्र की शब का है ये पिछ्ला पहर उठो 'शहाब'

रो चुके शब भर ये चश्म-तर कहाँ ले जाओगे

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