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है ये शहर-ए-इश्क़ याँ आब-ओ-हवा कुछ और है - इफ़्फ़त अब्बास कविता - Darsaal

है ये शहर-ए-इश्क़ याँ आब-ओ-हवा कुछ और है

है ये शहर-ए-इश्क़ याँ आब-ओ-हवा कुछ और है

सुर्ख़ रंगत है ज़मीं की और फ़ज़ा कुछ और है

याँ जुनूँ है कारवान-ए-शौक़ को बाँग-ए-रहील

ऐ मुसाफ़िर ये पयाम-ए-नक़्श-ए-पा कुछ और है

है जुदा इस शहर-ए-दिल में लज़्ज़त-ए-रंज-ओ-अलम

इस जगह ख़ून-ए-जिगर का ज़ाइक़ा कुछ और है

आरिफ़-ए-कामिल हैं इन सहराओं के सहरा-नवर्द

याँ तो हर मजनूँ का अंदाज़-ओ-अदा कुछ और हे

ज़िक्र की तमसील हर तनसील की ता'बीर है

लुत्फ़-ए-जन्नत और है आब-ए-बक़ा कुछ और है

रेगज़ार-ए-हिज्र में एहसास के ज़मज़म निहाँ

इस जगह तो तिश्नगी का सिलसिला कुछ और है

तू जो नौ-वारिद है सुन याँ ऐश-ए-हस्ती है जुदा

हुस्न की सरकार में लफ़्ज़-ए-फ़ना कुछ और है

दोश पर आग़ोश में पहलू में हैदर कब न थे

दस्त-ए-मुर्सल पर बुलंदी का मज़ा कुछ और है

अहल-ए-रद्द-ओ-कद ने सौ तफ़्सीर की इक लफ़्ज़ की

पर न समझे कि नबी का मुद्दआ' कुछ और है

सुन किसी मज्ज़ूब से एक बार रूदाद-ए-ग़दीर

ख़ुम के मिम्बर पर अली का मर्तबा कुछ और है

सुर्ख़-रू हो जाए तुझ से दा'वा-ए-उल्फ़त शहाब

आशिक़ों के ज़िंदा रहने की अदा कुछ और है

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