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मिरे क़रीब ही महताब देख सकता था - इदरीस बाबर कविता - Darsaal

मिरे क़रीब ही महताब देख सकता था

मिरे क़रीब ही महताब देख सकता था

गए दिनों में ये तालाब देख सकता था

इक ऐसे वक़्त में सब पेड़ मैं ने नक़्ल किए

जहाँ पे मैं इन्हें शादाब देख सकता था

ज़ियादा देर उसी नाव में ठहरने से

मैं अपने-आप को ग़र्क़ाब देख सकता था

कोई भी दिल में ज़रा जम के ख़ाक उड़ाता तो

हज़ार गौहर-ए-नायाब देख सकता था

कहानियों ने मिरी आदतें बिगाड़ दी थीं

मैं सिर्फ़ सच को ज़फ़र-याब देख सकता था

मगर वो शहर कहानी में रह गया है दोस्त!

जहाँ मैं रह के तिरे ख़्वाब देख सकता था

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