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इस से फूलों वाले भी आजिज़ आ गए हैं - इदरीस बाबर कविता - Darsaal

इस से फूलों वाले भी आजिज़ आ गए हैं

इस से फूलों वाले भी आजिज़ आ गए हैं

तेरी ख़ातिर जो गुलदस्ता ढूँड रहा है

दिल को धक्के खाते निकाले जाते देख के

साहिल अपना पक्का दरिया ढूँड रहा है

तस्मा खुला जैसे आज़ाद तलाज़मा हो वाह

एक पहन के दूसरा जूता ढूँड रहा है

उस के फ़्लैट से बाहर कोई दूर का दोस्त

पास के बस स्टाप का रस्ता ढूँड रहा है

बस कर दे अब, कब से मतला ढूँड रहा है

क्या कोई तीसरा चौथा मिस्रा ढूँड रहा है

एम-ए किए बिंत-ए-मोची को चौथा साल है

तब से वो जॉब और कर्मू रिश्ता ढूँड रहा है

हर मसनूई पंखा झूटा मेक-अप कर के

ज़ात की शहर-पनाह में रख़्ना ढूँड रहा है

लैम्प जलाते और बुझा के फिर से जलाते

या वो मुझे गुम करता है या ढूँड रहा है

पार्टी ठप मेहमान-ए-ख़ुसूसी शाइर-ए-आज़म

पतली गली में पान का खोखा ढूँड रहा है

यारो बैठे नहरें खोदो बातें छोड़ो

मैं उसे ढूँड लूँ मुझे जो तन्हा ढूँड रहा है

इक लड़की अपने लिए लड़की ढूँड रही है

इक लड़का अपने लिए लड़का ढूँड रहा है

मोबाइल पर ऐप लगाओ काम चलाओ

कौन पुराने शहर का नक़्शा ढूँड रहा है

रोज़े रखवाओ खुलवाओ जन्नत पाओ

बंदा तो दो वक़्त का खाना ढूँड रहा है

मेरी इकलौती टी-शर्ट पे क़ब्ज़ा जमाए

अच्छा रूममेट अपना कच्छा ढूँड रहा है

खिल-खिला के लोड-शेडिंग से फ़ैज़ उठा के

यूसुफ़-जानी तुझे ये अंधा ढूँड रहा है

गदले पानी से धुलते स्टेशन पर किस को

गर्मा-गर्म सी चाय का पियाला ढूँड रहा है

सीने पर दो क़ब्रों कै ता'वीज़ बंधे हैं

बच कर, धूप! मुझे इक साया ढूँड रहा है

यू-ई-टी में छुट्टियाँ होने वाली हैं दोस्त

कौन सा हॉस्टल किस का कमरा ढूँड रहा है

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