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इस से पहले कि ज़मीं-ज़ाद शरारत कर जाएँ - इदरीस बाबर कविता - Darsaal

इस से पहले कि ज़मीं-ज़ाद शरारत कर जाएँ

इस से पहले कि ज़मीं-ज़ाद शरारत कर जाएँ

हम सितारों ने ये सोचा है कि हिजरत कर जाएँ

दौलत-ए-ख़्वाब हमारे जो किसी काम न आई

अब किसी को नहीं मिलने की वसिय्यत कर जाएँ

दहर से हम यूँही बे-कार चले जाते थे

फिर ये सोचा कि चलो एक मोहब्बत कर जाएँ

इक ज़रा वक़्त मयस्सर हो तो आ कर मिरे दोस्त

दिल में खिलते हुए फूलों को नसीहत कर जाएँ

उन हवा-ख़्वाहों से कहना कि ज़रा शाम ढले

आएँ और बज़्म-ए-चराग़ाँ की सदारत कर जाएँ

दिल की इक एक ख़राबी का सबब जानते हैं

फिर भी मुमकिन है कि हम तुम से मुरव्वत कर जाएँ

शहर के ब'अद तो सहरा था मियाँ ख़ैर हुई

दश्त के पार भला क्या है कि वहशत कर जाएँ

रेग-ए-दिल में कई नादीदा परिंदे भी हैं दफ़्न

सोचते होंगे कि दरिया की ज़ियारत कर जाएँ

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