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दिल कोई आईना नहीं टूट के रह गया तो फिर - इदरीस बाबर कविता - Darsaal

दिल कोई आईना नहीं टूट के रह गया तो फिर

दिल कोई आईना नहीं टूट के रह गया तो फिर

ठीक ही कह रहे हो तुम ठीक न हो सका तो फिर

उस को भुलाने लग गए इस में ज़माने लग गए

ब'अद में याद आ गया वो कोई और था तो फिर

फूल है जो किताब में अस्ल है कि ख़्वाब है

उस ने इस इज़्तिराब में कुछ न पढ़ा लिखा तो फिर

रास्ते अजनबी से थे पेड़ थे सो किसी के थे

ये कोई सोचता तो क्यूँ और कोई सोचता तो फिर

अब उसे ख़्वाब जान के सो रहो लम्बी तान के

याद न आ सका तो क्या याद भी आ गया तो फिर

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