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ये तकल्लुफ़ ये मुदारात समझ में आए - इबरत मछलीशहरी कविता - Darsaal

ये तकल्लुफ़ ये मुदारात समझ में आए

ये तकल्लुफ़ ये मुदारात समझ में आए

हो जुदाई तो मुलाक़ात समझ में आए

रूह की प्यास फुवारों से कहीं बुझती है

टूट के बरसे तो बरसात समझ में आए

जागते लब मिरे और उस की झपकती आँखें

नींद आए तो कहाँ बात समझ में आए

ली थी मौहूम तहफ़्फ़ुज़ के घरौंदे में पनाह

रेत जब बिखरी तो हालात समझ में आए

उँगलियाँ जिस्म के सब ऐब-ओ-हुनर जानती हैं

लम्स जागे तो इक इक बात समझ में आए

सैकड़ों हाथ मिरे क़त्ल में ठहरे हैं शरीक

एक दो हों तो कोई बात समझ में आए

कभी उतरा ही नहीं उस के तकल्लुफ़ का लिबास

हो बरहना तो मुलाक़ात समझ में आए

कोई आसाँ नहीं जल जल के सहर कर लेना

शम्अ बन जाओ तो फिर रात समझ में आए

तुम किसी रेत के टीले पे खड़े हो 'इबरत'

उठ्ठे तूफ़ाँ तो फिर औक़ात समझ में आए

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