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तुम सा गर राहबर नहीं होता - इबरत बहराईची कविता - Darsaal

तुम सा गर राहबर नहीं होता

तुम सा गर राहबर नहीं होता

कोई भी राह पर नहीं होता

रास्ते भी फ़रेब देते हैं

जब कोई हम-सफ़र नहीं होता

उस की यादें जो हम-सफ़र होतीं

तो सफ़र तूल-तर नहीं होता

अपने साए से जो न हो महरूम

ऐसा कोई शजर नहीं होता

हाँ मैं उस की अगर मिलाता हाँ

दार पे मेरा सर नहीं होता

मैं निकलता हूँ जब सफ़र के लिए

घर में रख़्त-ए-सफ़र नहीं होता

लाख करता हूँ कोशिशें 'इबरत'

ग़म मगर मुख़्तसर नहीं होता

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