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ख़याल-ए-बद से हमा-वक़्त इज्तिनाब करो - इबरत बहराईची कविता - Darsaal

ख़याल-ए-बद से हमा-वक़्त इज्तिनाब करो

ख़याल-ए-बद से हमा-वक़्त इज्तिनाब करो

फ़ज़ा-ए-शहर को दानिस्ता मत ख़राब करो

जहाँ में आए हो दो दिन की ज़िंदगी ले कर

हर इक महाज़ पे तुम उस को कामयाब करो

तमाम शहर है डूबा हुआ अँधेरे में

तुम अपने चाँद से चेहरे को बे-नक़ाब करो

इधर ख़ुलूस उधर बुग़्ज़ और नफ़रत है

अज़ीज़ क्या है तुम्हें इस का इंतिख़ाब करो

जो तुम ने मुझ को दिया और मैं ने तुम को दिया

तुम उस का बैठ के चौपाल में हिसाब करो

हिजाब अज़्मत-ए-इंसानियत का ज़ामिन है

रहो कहीं भी प पाबंदी-ए-हिजाब करो

अगर वतन से मोहब्बत है तुम को ऐ 'इबरत'

तो पैदा अज़्म से तुम सब्ज़ इंक़लाब करो

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