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तिरी ज़मीं से उठेंगे तो आसमाँ होंगे - इब्राहीम अश्क कविता - Darsaal

तिरी ज़मीं से उठेंगे तो आसमाँ होंगे

तिरी ज़मीं से उठेंगे तो आसमाँ होंगे

हम ऐसे लोग ज़माने में फिर कहाँ होंगे

चले गए तो पुकारेगी हर सदा हम को

न जाने कितनी ज़बानों से हम बयाँ होंगे

लहू लहू के सिवा कुछ न देख पाओगे

हमारे नक़्श-ए-क़दम इस क़दर अयाँ होंगे

समेट लीजिए भीगे हुए हर इक पल को

बिखर गए जो ये मोती तो राएगाँ होंगे

उचाट दिल का ठिकाना किसी को क्या मालूम

हम अपने आप से बिछड़े तो फिर कहाँ होंगे

हैं अपनी मौज के बहते हुए समुंदर हम

तमाम दश्त-ए-जुनूँ में रवाँ-दवाँ होंगे

ये बज़्म-ए-यार है क़ुर्बान जाइए इस पर

सुना है 'अश्क' यहाँ दिल सभी जवाँ होंगे

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