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शीशे का आदमी हूँ मिरी ज़िंदगी है क्या - इब्राहीम अश्क कविता - Darsaal

शीशे का आदमी हूँ मिरी ज़िंदगी है क्या

शीशे का आदमी हूँ मिरी ज़िंदगी है क्या

पत्थर हैं सब के हाथ में मुझ को कमी है क्या

अब शहर में वो फूल से चेहरे नहीं रहे

कैसी लगी है आग ये बस्ती हुई है क्या

मैं जल रहा हूँ और कोई देखता नहीं

आँखें हैं सब के पास मगर बेबसी है क्या

तुम दोस्त हो तो मुझ से ज़रा दुश्मनी करो

कुछ तल्ख़ियाँ न हों तो भला दोस्ती है क्या

ऐ गर्दिश-ए-तलाश न मंज़िल न रास्ता

मेरा जुनूँ है क्या मिरी आवारगी है क्या

ख़ुश हो के हर फ़रेब ज़माने का खा लिया

ये दिल ही जानता है कि दिल पर बनी है क्या

दो बोल दिल के हैं जो हर इक दिल को छू सकें

ऐ 'अश्क' वर्ना शेर हैं क्या शाइरी है क्या

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