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रू-ब-रू उन के कोई हर्फ़ अदा क्या करते - इब्राहीम अश्क कविता - Darsaal

रू-ब-रू उन के कोई हर्फ़ अदा क्या करते

रू-ब-रू उन के कोई हर्फ़ अदा क्या करते

दर्द तो हम को छुपाना था सदा क्या करते

बेवफ़ाई भी वफ़ा ही की तरह की उस ने

ऐसे इंसान से करते तो गिला क्या करते

छिन गईं हाथ उठाने से दुआएँ महँगी

हौसला फिर वो दुआओं का भला क्या करते

कुछ तो आते रहे उम्मीद के झोंके वर्ना

इतना शादाब मुझे आब ओ हवा क्या करते

अपने मेयार से गिरना नहीं आया हम को

अपने किरदार को हम इस से सिवा क्या करते

जब भी आया कोई अच्छा ही ख़याल आया है

'अश्क' हम जैसे ज़माने का बुरा क्या करते

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