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न कू-ए-यार में ठहरा न अंजुमन में रहा - इब्राहीम अश्क कविता - Darsaal

न कू-ए-यार में ठहरा न अंजुमन में रहा

न कू-ए-यार में ठहरा न अंजुमन में रहा

अदा-ए-नाज़ से ये दिल सरा-ए-फ़न में रहा

हज़ारों तूफ़ाँ उठाए हैं वक़्त आने पर

लहू भी ख़ास अदा से मिरे बदन में रहा

मैं एक रंग था रंग-ए-ख़याल-ए-आवारा

किसी धनक में किसी रुत के पैरहन में रहा

अना ही थी कि न झुकने दिया कभी मुझ को

पहाड़ सर पे उठा कर भी बाँकपन में रहा

वो मैं ही था कि कोई और था नहीं मा'लूम

तमाम उम्र जो मेरे ही जान ओ तन में रहा

सफ़ीर-ए-जाँ के लिए मंज़िलें नहीं होतीं

कोई पड़ाव भी आया तो वो थकन में रहा

उठी जो सैफ़-ए-सितम बे-नियाज़-ए-मौत-ओ-हयात

क़लम-ब-दस्त खड़ा वादी-ए-सुख़न में रहा

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