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मैं कब रहीन-ए-रेग-ए-बयाबान-ए-यास था - इब्राहीम अश्क कविता - Darsaal

मैं कब रहीन-ए-रेग-ए-बयाबान-ए-यास था

मैं कब रहीन-ए-रेग-ए-बयाबान-ए-यास था

सद-ख़ेमा-ए-बहार मिरे आस पास था

तोड़ा है बार-हा मुझे दिल की शिकस्त ने

चेहरा मगर ज़रा भी न मेरा उदास था

सहरा-ए-जाँ की धूप में थीं वहशतें बहुत

लेकिन न मेरा अज़्म कहीं बद-हवास था

ये और बात है कि बरहना थी ज़िंदगी

मौजूद फिर भी मेरे बदन पर लिबास था

मैं ने हर एक लम्हे को चाहा है टूट कर

था ज़िंदगी-परस्त मोहब्बत-शनास था

मौसम कुछ आए ऐसे भी शहर-ए-ख़याल में

मुझ को न जिन का इल्म न कोई क़यास था

फ़िक्र-ए-सुख़न ही 'अश्क' है ज़ौक़-ए-अमल मिरा

इस के सिवा न कार-ए-जहाँ कोई रास था

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