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करें सलाम उसे तो कोई जवाब न दे - इब्राहीम अश्क कविता - Darsaal

करें सलाम उसे तो कोई जवाब न दे

करें सलाम उसे तो कोई जवाब न दे

इलाही इतना भी उस शख़्स को हिजाब न दे

तमाम शहर के चेहरों को पढ़ने निकला हूँ

ऐ मेरे दोस्त मिरे हाथ में किताब न दे

ग़ज़ल के नाम को बदनाम कर दिया उस ने

कुछ और दे मिरे साक़ी मुझे शराब न दे

मैं तुझ को देख के तेरे भरम को जान सुकूँ

इक आदमी हूँ ज़रा सोच ऐसी ताब न दे

वो मिल न पाए अगर मुझ को इस ज़माने में

तो ऐसी हूर का दुनिया में कोई ख़्वाब न दे

ये मेरे फ़न की तलब है कि दिल की बात कहूँ

वो 'अश्क' दे कि ज़माने को इंक़िलाब न दे

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