दैर-ओ-हरम में दश्त-ओ-बयाबान-ओ-बाग़ में
दैर-ओ-हरम में दश्त-ओ-बयाबान-ओ-बाग़ में
ढूँडो न मुझ को मैं हूँ ख़ुद अपने सुराग़ में
हाँ ऐ असीरो ख़ैर से हो किस सुराग़ में
खिलते हैं अब तो फूल हवा-बस्त बाग़ में
इस बर्फ़-ज़ार में भी जलाती ही जाती है
वो इक शबीह जो है निहाँ दिल के दाग़ में
रहता है अब ज़मीन पे वो आसमाँ-पसंद
हाँ वो ख़जिल था जिस से ख़ुदा भी दिमाग़ में
मुमकिन नहीं कि ग़ार में दिल के उतर सके
माँगे की रौशनी है तुम्हारे चराग़ में
क्या क़द्र वो करेंगे किसी ख़ुश-नवा की 'होश'
तफ़रीक़ कर सकें जो न क़ुमरी-ओ-ज़ाग़ में
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