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राह-ए-तलब में कौन किसी का अपने भी बेगाने हैं - इब्न-ए-सफ़ी कविता - Darsaal

राह-ए-तलब में कौन किसी का अपने भी बेगाने हैं

राह-ए-तलब में कौन किसी का अपने भी बेगाने हैं

चाँद से मुखड़े रश्क-ए-ग़ज़ालाँ सब जाने पहचाने हैं

तन्हाई सी तन्हाई है कैसे कहें कैसे समझाएँ

चश्म ओ लब-ओ-रुख़्सार की तह में रूहों के वीराने हैं

उफ़ ये तलाश-ए-हुस्न-ओ-हक़ीक़त किस जा ठहरें जाएँ कहाँ

सेहन-ए-चमन में फूल खिले हैं सहरा में दीवाने हैं

हम को सहारे क्या रास आएँ अपना सहारा हैं हम आप

ख़ुद ही सहरा ख़ुद ही दिवाने शम-ए-नफ़स परवाने हैं

बिल-आख़िर थक हार के यारो हम ने भी तस्लीम किया

अपनी ज़ात से इश्क़ है सच्चा बाक़ी सब अफ़्साने हैं

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