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वो ख़्वाब जैसा था गोया सराब लगता था - इब्न-ए-मुफ़्ती कविता - Darsaal

वो ख़्वाब जैसा था गोया सराब लगता था

वो ख़्वाब जैसा था गोया सराब लगता था

हसीन ऐसा कि फ़ख़्र-ए-गुलाब लगता था

हलीम ऐसा कि दीवानी एक दुनिया थी

कि उस से हाथ मिलाना सवाब लगता था

निभाना रिश्तों का नाज़ुक कठिन अमल निकला

जो देखने में तो सीधा हिसाब लगता था

सुराही-दार थी गर्दन नशा भरे आरिज़

सरापा उस का मुजस्सम शराब लगता था

वो बोलता तो फ़ज़ा नग़्मगी में रच जाती

गले में हो कोई उस के रबाब लगता था

कहानी एक नई देती होंट की जुम्बिश

वो लब जो खोलता गोया किताब लगता था

वो शख़्स आज गुरेज़ाँ है साए से मेरे

जिसे पसीना भी मेरा गुलाब लगता था

अमल में फ़े'अल में उस के तज़ाद था 'मुफ़्ती'

अगरचे दिल में उतरता ख़िताब लगता था

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