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शौक़ जब भी बंदगी का रहनुमा होता नहीं - इब्न-ए-मुफ़्ती कविता - Darsaal

शौक़ जब भी बंदगी का रहनुमा होता नहीं

शौक़ जब भी बंदगी का रहनुमा होता नहीं

ज़िंदगी से ज़िंदगी का हक़ अदा होता नहीं

क्या समझ आएँगी तुम को इश्क़ की बारीकियाँ

दिल तुम्हारा जब तलक दर्द-आश्ना होता नहीं

रूह ओ तन का इश्क़ ये क़ाएम रहेगा दाइमी

ख़त्म ब'अद-ए-मर्ग भी ये सिलसिला होता नहीं

कौन है जो जुर्म करने को है शब का मुंतज़िर

रौशनी में दिन की यारो क्या भला होता नहीं

ग़ालिबन होता मुझे भी घर के गिरने का गिला

राहगीरों का अगर ये रास्ता होता नहीं

बद-गुमानी की फ़ज़ा में क्या सफ़ाई दें तुम्हें

इस फ़ज़ा में कोई भी हल मसअला होता नहीं

इक ज़रा सी बात पे ये मुँह बनाना रूठना

इस तरह तो कोई अपनों से ख़फ़ा होता नहीं

कोई गुस्ताख़ी तो की है नाव ने गिर्दाब से

वर्ना यूँ साहिल पे कोई ग़म-ज़दा होता नहीं

कमरा-ए-तक़दीर में आती उरूस-ए-आरज़ू

वक़्त-ए-ना-हंजार का जो फ़ैसला होता नहीं

आँख से पीने का भी साक़ी ने माँगा है हिसाब

इस रविश से यारो कोई मय-कदा होता नहीं

'मुफ़्ती' देखो महर पल्टा है मिरी तक़दीर का

देखते हैं किस तरह सज्दा अदा होता नहीं

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