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फिर से वो लौट कर नहीं आया - इब्न-ए-मुफ़्ती कविता - Darsaal

फिर से वो लौट कर नहीं आया

फिर से वो लौट कर नहीं आया

फिर दुआ में असर नहीं आया

चैन आएगा कैसे आज की शब

तारे निकले, क़मर नहीं आया

लिखते देखा था ख़्वाब में उन को

अब तलक नामा-बर नहीं आया

मेरे मरने पे आया सारा जहाँ

जो था इक बा-ख़बर नहीं आया

चल बसी माँ लिए खुली आँखें

उस का, नूर-ए-नज़र नहीं आया

यूँ तो पत्थर बहुत से देखे हैं

कोई तुम सा नज़र नहीं आया

शाम ढलने लगी है अब 'मुफ़्ती'

सुब्ह का भूला घर नहीं आया

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