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नफ़रतें न अदावतें बाक़ी हैं - इब्न-ए-मुफ़्ती कविता - Darsaal

नफ़रतें न अदावतें बाक़ी हैं

नफ़रतें न अदावतें बाक़ी हैं

गर रहेंगी तो उल्फ़तें बाक़ी

रह ही जाते हैं सब फ़साने यहाँ

हैं जो बाक़ी मोहब्बतें बाक़ी

टिमटिमाता दिया है बुझने को

रह गईं कुछ ही साअतें बाक़ी

ख़त्म होंगी न ये मुलाक़ातें

यार ज़िंदा तो सोहबतें बाक़ी

जिन पे नाज़ाँ थे ये ज़मीन ओ फ़लक

अब कहाँ हैं वो सूरतें बाक़ी

आज भी हैं बहुत से ना-बीना

देखी जिन में बसारतें बाक़ी

बन के तावीज़ कुछ गले में हैं

भूले क़ुर्अां की सूरतें बाक़ी

हश्र में और लहद में जाना है

रह गईं दो ही हिजरतें बाक़ी

औज तो बंदगी में मुज़्मर है

हेच सारी हैं रिफ़अतें बाक़ी

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