बर्क़ ने जब भी आँख खोली है
बर्क़ ने जब भी आँख खोली है
आशियानों ने ख़ाक रोली है
याद का क्या है आ गई फिर से
आँख का क्या है फिर से रो ली है
तुम बिछा लो मुसल्ला-ए-चाहत
मैं ने दहलीज़ दिल की धो ली है
दिल की बातों को दिल समझता है
दिल की बोली अजीब बोली है
पर्दा उठते ही मेरी नज़रों से
काएनात-ए-यक़ीन डोली है
मुस्कुराए न चाँद क्यूँ 'मुफ़्ती'
आई जो चाँदनी की डोली है
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