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ये कौन आया - इब्न-ए-इंशा कविता - Darsaal

ये कौन आया

'इंशा'-जी ये कौन आया किस देस का बासी है

होंटों पे तबस्सुम है आँखों में उदासी है

ख़्वाबों के गुलिस्ताँ की ख़ुश-बू-ए-दिल-आरा है

या सुब्ह-ए-तमन्ना के माथे का सितारा है

तरसी हुई नज़रों को अब और न तरसा रे

ऐ हुस्न के सौदागर ऐ रूप के बंजारे

रमना दिल-ए-'इंशा' का अब तेरा ठिकाना हो

अब कोई भी सूरत हो अब कोई बहाना हो

ख़ाकिस्तर-ए-दिल को है फिर शोला-ब-जाँ होना

हैरत का जहाँ होना हसरत का निशाँ होना

ऐ शख़्स जो तू आकर यूँ दिल में समाया है

तू दर्द कि दरमाँ है तो धूप कि साया है?

नैनाँ तिरे जादू हैं गेसू तिरे ख़ुश्बू हैं

बातें किसी जंगल में भटका हुआ आहू हैं

मक़्सूद-ए-वफ़ा सुन ले क्या साफ़ है सादा है

जीने की तमन्ना है मरने का इरादा है

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