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फ़र्ज़ करो - इब्न-ए-इंशा कविता - Darsaal

फ़र्ज़ करो

फ़र्ज़ करो हम अहल-ए-वफ़ा हों, फ़र्ज़ करो दीवाने हों

फ़र्ज़ करो ये दोनों बातें झूटी हों अफ़्साने हों

फ़र्ज़ करो ये जी की बिपता जी से जोड़ सुनाई हो

फ़र्ज़ करो अभी और हो इतनी आधी हम ने छुपाई हो

फ़र्ज़ करो तुम्हें ख़ुश करने के ढूँढे हम ने बहाने हों

फ़र्ज़ करो ये नैन तुम्हारे सच-मुच के मय-ख़ाने हों

फ़र्ज़ करो ये रोग हो झूटा झूटी पीत हमारी हो

फ़र्ज़ करो इस पीत के रोग में साँस भी हम पर भारी हो

फ़र्ज़ करो ये जोग बजोग का हम ने ढोंग रचाया हो

फ़र्ज़ करो बस यही हक़ीक़त बाक़ी सब कुछ माया हो

देख मिरी जाँ कह गए बाहू कौन दिलों की जाने 'हू'

बस्ती बस्ती सहरा सहरा लाखों करें दिवाने 'हू'

जोगी भी जो नगर नगर में मारे मारे फिरते हैं

कासा लिए भबूत रमाए सब के द्वारे फिरते हैं

शायर भी जो मीठी बानी बोल के मन को हरते हैं

बंजारे जो ऊँचे दामों जी के सौदे करते हैं

इन में सच्चे मोती भी हैं, इन में कंकर पत्थर भी

इन में उथले पानी भी हैं, इन में गहरे सागर भी

गोरी देख के आगे बढ़ना सब का झूटा सच्चा 'हू'

डूबने वाली डूब गई वो घड़ा था जिस का कच्चा 'हू'

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